बांग्ला भाषा के शीर्ष साहित्यकारों में गिने जाने वाले बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने लेखन से न सिर्फ़ बंगाल के समाज बल्कि पूरे देश को प्रभावित किया.
बंकिम चंद्र एक विद्वान लेखक थे और कम लोगों को पता है कि उनकी पहली प्रकाशित कृति बांग्ला में न होकर अंग्रेज़ी में थी, जिसका नाम था 'राजमोहन्स वाइफ़.'
1838 में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में जन्मे बंकिम चंद्र की पहली प्रकाशित बांग्ला कृति 'दुर्गेशनंदिनी' थी जो मार्च 1865 में छपी थी.
'दुर्गेशनंदिनी' एक उपन्यास था लेकिन आगे चलकर उन्हें महसूस हुआ कि उनकी असली प्रतिभा काव्य लेखन के क्षेत्र में है और उन्होंने कविताएँ लिखना शुरू कर दिया.
अनेक महत्वपूर्ण साहित्यिक कृतियों की रचना करने वाले बंकिम की शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई थी.
'दुर्गेशनंदिनी' का प्रकाशन
वे उसी साल स्नातक हुए थे जिस वर्ष भारत ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के विरुद्ध पहली बार संगठित विद्रोह किया था.
वर्ष 1857 में उन्होंने बीए पास किया और 1869 में उन्होंने क़ानून की डिग्री भी हासिल की.
बंकिम न केवल एक साहित्यकार थे बल्कि एक सरकारी अधिकारी भी थे, उन्होंने अपने अफ़सर पिता की तरह कई उच्च सरकारी पदों पर नौकरी की और 1891 में सरकारी सेवा से रिटायर हुए.
उनकी शादी ग्यारह वर्ष की उम्र में हुई थी और उनकी पत्नी का निधन कुछ ही वर्षों के भीतर हो गया, उसके बाद उन्होंने दूसरा विवाह राजलक्ष्मी देवी से किया और उनकी तीन बेटियाँ थीं.
1865 में 'दुर्गेशनंदिनी' का प्रकाशन हुआ लेकिन तब उसकी कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई लेकिन एक ही वर्ष के भीतर 1866 में उन्होंने अगले उपन्यास 'कपालकुंडला' की रचना की जो काफ़ी विख्यात हुई.
अप्रैल 1872 में उन्होंने बंगदर्शन नाम की पत्रिका निकालनी शुरू की जिसमें उन्होंने गंभीर साहित्यिक-सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे उठाए. यह अब तक रूमानी साहित्य लिखने वाले व्यक्ति के जीवन में एक अहम मोड़ था.
राष्ट्रवाद का प्रतीक
रामकृष्ण परमहंस के समकालीन और उनके निकट मित्र रहे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने आनंदमठ की रचना की जिसमें बाद में वंदे मातरम् को भी शामिल किया गया जो देखते-देखते पूरे देश में राष्ट्रवाद का प्रतीक बन गया.
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसके लिए धुन तैयार की और वंदे मातरम् की लोकप्रियता तेज़ी से बढ़ने लगी.
अप्रैल 1894 में बंकिम चंद्र का निधन हुआ और उसके 12 वर्ष बाद जब क्रांतिकारी बिपिन चंद्र पाल ने एक राजनीतिक पत्रिका निकालनी शुरू की तो उसका नाम उन्होंने वंदे मातरम् रखा.
लाला लाजपत राय भी इसी नाम से एक राष्ट्रवादी पत्रिका का प्रकाशन कर चुके हैं.
बहुमुखी प्रतिभा के धनी राष्ट्रवादी साहित्यकार को एक विनोदी व्यक्ति के रूप में भी जाना जाता था. उन्होंने हास्य-व्यंग्य से भरपूर 'कमलाकांतेर दफ़्तर' जैसी रचनाएँ भी लिखीं.
वंदे मातरम् से जुड़े हैं अनेक पहलू
जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला.
लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है.
वंदे मातरम् का इतिहास बड़ा ही दिलचस्प है. बंकिम चंद्र ने वंदे मातरम् की रचना 1870 के दशक में की थी.
उन्होंने भारत को दुर्गा का स्वरूप मानते हुए देशवासियों को उस माँ की संतान बताया. भारत को वो माँ बताया जो अंधकार और पीड़ा से घिरी है. उसके बच्चों से बंकिम आग्रह करते हैं कि वे अपनी माँ की वंदना करें और उसे शोषण से बचाएँ.
भारत को दुर्गा माँ का प्रतीक मानने के कारण आने वाले वर्षों में वंदे मातरम् को मुस्लिम लीग और मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग शक की नज़रों से देखने लगा.
नेहरू ने ली थी गुरुदेव की सलाह
इसी विवाद के कारण भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू वंदे मातरम् को आज़ाद भारत के राष्ट्रगान के रूप में नहीं स्वीकार करना चाहते थे.
मुस्लिम लीग और मुसलमानों ने वंदे मातरम् का इस वजह से विरोध किया था कि वो देश को भगवान का रूप देकर उसकी पूजा करने के ख़िलाफ़ थे.
नेहरू ने स्वयं रवींद्रनाथ ठाकुर से वंदे मातरम् को स्वतंत्रता आंदोलन का मंत्र बनाए जाने के लिए उनकी राय माँगी थी.
रवींद्रनाथ ठाकुर बंकिम चंद्र की कविताओं और राष्ट्रभक्ति के प्रशंसक रहे थे और उन्होंने नेहरू से कहा कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए.
हालांकि बंकिमचंद्र की राष्ट्रभक्ति पर किसी को शक नहीं था.
सवाल यह था कि जब उन्होंने 'आनंदमठ' लिखा उसमें उन्होंने बंगाल पर शासन कर रहे मुस्लिम राजाओं और मुसलमानों पर ऐसी कई टिप्पणियाँ की गई थीं जिससे हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच तनाव पैदा हुआ.
वंदे मातरम् को हालाँकि कई वर्ष पहले एक कविता के रूप में लिखा गया था लेकिन उसे बाद में प्रकाशित हुए आनंदमठ उपन्यास का हिस्सा बनाया गया.
'मुस्लिम विरोधी नहीं कह सकते'
आनंदमठ की कहानी 1772 में पूर्णिया, दानापुर और तिरहुत में अंग्रेज़ और स्थानीय मुस्लिम राजा के ख़िलाफ़ सन्यासियों के विद्रोह की घटना से प्रेरित है.
आनंदमठ का सार ये है कि किस प्रकार से हिंदू सन्यासियों ने मुसलमान शासकों को हराया. आनंदमठ में बंकिम चंद्र ने बंगाल के मुस्लिम राजाओं की कड़ी आलोचना की.
एक जगह वो लिखते हैं, "हमने अपना धर्म, जाति, इज़्ज़त और परिवार का नाम खो दिया है. हम अब अपनी ज़िंदगी ग़वाँ देंगे. जब तक इन... (को) भगाएँगे नहीं तब तक हिंदू अपने धर्म की रक्षा कैसे करेंगे."
इतिहासकार तनिका सरकार की राय में "बंकिम चंद्र इस बात को मानते थे कि भारत में अंग्रेज़ों के आने से पहले बंगाल की दुर्दशा मुस्लिम राजाओं के कारण थी."
'बांग्ला इतिहासेर संबंधे एकटी कोथा' में बंकिम चंद्र ने लिखा, "मुग़लों की विजय के बाद बंगाल की दौलत बंगाल में न रहकर दिल्ली ले जाई गई."
लेकिन प्रतिष्ठित इतिहासकार केएन पणिक्कर के मुताबिक़ "बंकिम चंद्र के साहित्य में मुस्लिम शासकों के ख़िलाफ़ कुछ टिप्पणियों के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि बंकिम मुस्लिम विरोधी थे. आनंदमठ एक साहित्यिक रचना है."
"बंकिम चंद्र अंग्रेज़ी हुकूमत में एक कर्मचारी थे और उन पर अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लिखे गए हिस्से 'आनंद मठ' से निकालने का दबाव था. 19वीं शताब्दी के अंत में लिखी इस रचना को उस समय के मौजूदा हालात के संदर्भ में पढ़ना और समझना ज़रूरी है."
(बीबीसी हिंदी पर ये लेख साल 2006 में पहली बार प्रकाशित हुआ था.)
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